By Dr. Vipul Kubavat
Contributory Author for Spark Igniting Minds
राहगीर हू मैं, मेरी भी अपनी राह,
जिंदगी के हिचकोले देती हर राह,
भट्टी की तपिश से गुज़र जाती जब चाह,
महारत हासिल करवाती, बस चाह,
साथी कब साथ निभा पाते हर राह,
अकेले ही जुटना होता है कई राह,
तब होती है साथ, अपनी ही चाह,
पहुँचाती मंज़िल पर तो बस चाह,
हिम्मत भी हारा कभी किसी राह,
हिसाब खोने-पाने का छोड़ा उस राह,
चलता रहा, नशेडी थी चाह,
कभी न दबी, न बुझी य़ह चाह,
कभी गहरे या रहे हरे, ज़ख्म कुछ राह,
ढोते, जिम्मेदार हर राह,
न थकने देती कभी चाह,
जब लक्ष साधती चाह,
आसान हो न हो, चाह ही राह,
कविता लिखनी थी, य़ह चाह,
उसमे उतरी अपनी ही राह,
यक़ीनन, चाह से ही राह!
About the Author
Dr. Vipul is a Public Health Expert by profession.
He developed flair for writing due to exposure to medical education and then compelling scrupulous documentation in Public Health assignments.
Inspired by a zest of a friend into the world of literature, he loves to inscribe momentary rush of feelings...
Just trying, being human!
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